हम तेरी चाह में, ऐ यार वहां तक पहुंचे, होश ये भी न जहां है कि कहां तक पहुंचे 

चांद को छूके चले आए हैं विज्ञान के पंख, देखना ये है कि इन्सान कहां तक पहुंचे 

अब तो मज़हब कोई ऐसा भी चलाया जाए, जिसमें इंसान को इंसान बनाया जाए 
जिसकी ख़ुशबू से महक जाए पड़ोसी का भी घर, फूल इस क़िस्म का हर सिम्त खिलाया जाए 

जो ज़ुल्म सह के भी चुप रह गया, न ख़ौल उठा, वो और कुछ हो मगर आदमी का रक्त न था 

जब चले जाएंगे लौट के सावन की तरह, याद आएंगे प्रथम प्यार के चुम्बन की तरह 

ज़िक्र जिस दम भी छिड़ा उनकी गली में मेरा जाने शरमाए वो क्यों गांव की दुल्हन की तरह 

जितना कम सामान रहेगा उतना सफ़र आसान रहेगा जितनी भारी गठरी होगी उतना तू हैरान रहेगा 

जिन मुश्किलों में मुस्कुराना हो मना, उन मुश्किलों में मुस्कुराना धर्म है 

जिस वक़्त जीना गैर मुमकिन सा लगे, उस वक़्त जीना फर्ज है इंसान का, लाजिम लहर के साथ है तब खेलना, जब हो समंदर पे नशा तूफ़ान का 

जीवन कटना था, कट गया अच्छा कटा, बुरा कटा यह तुम जानो मैं तो यह समझता हूं कपड़ा पुराना एक फटना था, फट गया जीवन कटना था कट गया। 

इसको भी अपनाता चल, उसको भी अपनाता चल, राही हैं सब एक डगर के, सब पर प्यार लुटाता चल। 

जलाओ दीये पर रहे ध्यान इतना अंधेरा धरा पर कहीं रह न जाए। 

तन की हवस मन को गुनहगार बना देती है बाग के बाग को बीमार बना देती है भूखे पेटों को देशभक्ति सिखाने वालो भूख इन्सान को गद्दार बना देती है।
P.k.vishwakarma Deoria 

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