बेटी पढ़ाओ बेटी बचाओ

*एक कवि* नदी के किनारे खड़ा था !
तभी वहाँ से *एक लड़की* का *शव*
नदी में तैरता हुआ जा रहा था।
तो तभी *कवि ने उस शव* से पूछा ----


कौन हो तुम ओ सुकुमारी,
*बह रही नदियां के जल में ?*

कोई तो होगा तेरा अपना,
*मानव निर्मित इस भू-तल में !*

किस घर की तुम बेटी हो,
*किस क्यारी की कली हो तुम ?*

किसने तुमको छला है बोलो,
*क्यों दुनिया छोड़ चली हो तुम ?*

किसके नाम की मेंहदी बोलो,
*हांथों पर रची है तेरे ?*

बोलो किसके नाम की बिंदिया,
*मांथे पर लगी है तेरे ?*

लगती हो तुम राजकुमारी,
*या देव लोक से आई हो ?*

उपमा रहित ये रूप तुम्हारा,
*ये रूप कहाँ से लायी हो?*
..........

*दूसरा दृश्य----*

*कवि* की बातें सुनकर
*लड़की की आत्मा* बोलती है...


कविराज मुझ को क्षमा करो,
*गरीब पिता की बेटी हूं !*

इसलिये मृत मीन की भांती,
*जल धारा पर लेटी हुँ !*

रूप रंग और सुन्दरता ही,
*मेरी पहचान बताते है !*

कंगन, चूड़ी, बिंदी, मेंहदी,
*सुहागन मुझे बनाते है !*

पिता के सुख को सुख समझा,
*पिता के दुख में दुखी थी मैं !*

जीवन के इस तन्हा पथ पर,
*पति के संग चली थी मैं !*

पति को मेने दीपक समझा,
*उसकी लौ में जली थी मैं !*

माता-पिता का साथ छोड़
*उसके रंग में ढली थी मैं !*

पर वो निकला सौदागर,
*लगा दिया मेरा भी मोल !*

दौलत और दहेज़ की खातिर
*पिला दिया जल में विष घोल !*

दुनिया रुपी इस उपवन में,
*छोटी सी एक कली थी मैं !*

जिस को माली समझा,
*उसी के द्वारा छली थी मैं !*

इश्वर से अब न्याय मांगने,
*शव शैय्या पर पड़ी हूँ मैं !*

दहेज़ की लोभी इस संसार मैं,
*दहेज़ की भेंट चढ़ी हूँ में !*

*दहेज़ की भेंट चढ़ी हूँ मैं !!*

.....................


 अनुरोध है इस *कविता को 

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